
Karnataka High Court: कर्नाटक हाईकोर्ट की महिला जज ने तलाक के एक मामले में सुनवाई करते हुए पुरुषों की चुनौतियों पर चर्चा की और जेंडर इक्वैलिटी के मुद्दे पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की। जज ने कहा कि समाज में पुरुषों की परेशानियों को नकारा नहीं जा सकता और समानता केवल लिंग के आधार पर नहीं, बल्कि सही मायने में होनी चाहिए। इस टिप्पणी के बाद उन्होंने पत्नी की याचिका को खारिज करते हुए उसे खूब फटकार भी लगाई।
पत्नी की याचिका और जज की टिप्पणी

पत्नी ने कोर्ट में याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने अपने तलाक के मामले को ट्रांसफर करने की अपील की थी। उनका कहना था कि वर्तमान में जहां मामला चल रहा है, वह स्थान उनके घर से 130 किमी दूर है, जिस कारण उन्हें कोर्ट आने में कठिनाई हो रही थी। इस पर जज ने पत्नी की याचिका अस्वीकार करते हुए कहा कि पति की स्थिति को समझना जरूरी है, क्योंकि बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी उन्हीं पर है। जज ने कहा कि अगर इस मामले को ट्रांसफर किया जाता है तो पति को अधिक परेशानी होगी, क्योंकि वह बच्चों के लिए खाना बनाता है, उन्हें खिलाता है, स्कूल भेजता है और फिर कोर्ट जाता है।

महिला जज ने दी लिंग-तटस्ठ समाज की जरूरत
जज चिल्लाकुर सुमलता ने अपनी टिप्पणी में कहा कि संवैधानिक रूप से महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कई मामलों में महिलाएं पीड़ित मानी जाती हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि पुरुषों को भी क्रूरता का सामना नहीं करना पड़ता। जज ने जोर देते हुए कहा कि समाज में जेंडर-न्यूट्रल (लिंग-तटस्ठ) दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण का उद्देश्य यह है कि समाज में महिलाओं और पुरुषों के लिए समान अवसर और समान व्यवहार सुनिश्चित किया जाए।
पुरुषों की चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता
जज सुमलता ने कहा कि सिर्फ इस कारण से कि एक महिला ने केस ट्रांसफर की याचिका दायर की है, इसका मतलब यह नहीं है कि उस मामले को ट्रांसफर कर दिया जाए। जज ने स्पष्ट किया कि पति को बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी निभानी है और वह हर दिन कई काम करता है, जिसमें खाना बनाना, बच्चों को खिलाना, स्कूल भेजना, आदि शामिल हैं। अगर इस मामले को ट्रांसफर किया गया तो उसे अधिक परेशानी होगी। उन्होंने यह भी कहा कि हमें समाज में पुरुषों के सामने आने वाली चुनौतियों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
समानता का वास्तविक मतलब
महिला जज ने कहा कि समानता का मतलब यह नहीं है कि हम केवल महिलाओं को ही प्राथमिकता दें, बल्कि इसका मतलब यह है कि हर व्यक्ति को उसके लिंग के आधार पर भेदभाव का सामना नहीं करना चाहिए। जेंडर आधारित असमानता को खत्म करने के लिए हमें लिंग के आधार पर कर्तव्यों के पृथक्करण को रोकना चाहिए। जज ने यह भी कहा कि समाज को महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के प्रयासों को सराहना चाहिए, लेकिन पुरुषों की समस्याओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
संविधान और समान अधिकारों की बात
जज ने यह भी बताया कि संविधान के अनुसार, महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार दिए गए हैं। इसके बावजूद, समाज में यह धारणा बनी हुई है कि केवल महिलाएं ही पीड़ित होती हैं। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि यह गलत है और पुरुषों को भी कई बार घरेलू क्रूरता और अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जिन पर समाज को गौर करना चाहिए।
लिंग-न्युट्रल समाज की आवश्यकता
जज सुमलता ने यह भी कहा कि हमें लिंग-न्युट्रल यानी लिंग के आधार पर तटस्थ समाज की जरूरत है, ताकि घर और कार्यस्थल पर महिलाओं और पुरुषों दोनों को समान व्यवहार मिले। यह समाज के लिए फायदेमंद होगा और इससे हर व्यक्ति को समान अवसर मिल सकेगा।
अंत में क्या हुआ
इस पूरे मामले के बाद जज ने पत्नी की याचिका को खारिज कर दिया और पति की चुनौतियों को सही माना। जज का कहना था कि अगर इस मामले को ट्रांसफर किया गया तो पति को अधिक दिक्कत होगी, क्योंकि वह बच्चों की देखभाल करने के बाद कोर्ट जाता है। जज ने कहा कि महिलाओं और पुरुषों के लिए समानता का मतलब सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसे वास्तविक जीवन में लागू किया जाना चाहिए।
कर्नाटक हाईकोर्ट की महिला जज का यह निर्णय और उनकी टिप्पणियाँ समाज में जेंडर इक्वैलिटी और लिंग आधारित असमानता पर एक महत्वपूर्ण संदेश देती हैं। जज ने यह साबित किया कि समानता सिर्फ एक अवधारणा नहीं, बल्कि एक आवश्यकता है, जिसे लागू किया जाना चाहिए। यह निर्णय न केवल तलाक के मामलों में, बल्कि समाज में महिलाओं और पुरुषों के अधिकारों के समान वितरण के लिए भी एक सशक्त कदम है।

