सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है जिससे वकीलों और उनके मुवक्किलों के बीच गोपनीयता के अधिकार को और मजबूत किया गया है। अदालत ने साफ कहा कि जांच एजेंसियां किसी वकील को सिर्फ इसलिए तलब नहीं कर सकतीं क्योंकि उसने अपने मुवक्किल को कानूनी सलाह दी है। ऐसा तभी किया जा सकता है जब इसके पीछे ठोस वजह हो और वरिष्ठ अधिकारी की मंजूरी ली गई हो।
वकीलों को जांच से पूरी छूट नहीं लेकिन सीमा तय
मुख्य न्यायाधीश भूषण आर. गवई की अगुवाई वाली तीन जजों की पीठ ने कहा कि वकील जांच से पूरी तरह मुक्त नहीं हैं लेकिन पेशेवर सलाह और आपराधिक गतिविधि में शामिल होने के मामलों में फर्क समझना जरूरी है। अदालत ने कहा कि यह फैसला कानूनी पेशे की स्वतंत्रता और न्याय व्यवस्था की मजबूती के लिए जरूरी है। जांच एजेंसियां अब किसी वकील से उसके मुवक्किल की जानकारी तभी मांग सकेंगी जब वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 132 के दायरे में आए।
क्या कहती है धारा 132
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 132 वकील और मुवक्किल के बीच की बातचीत को गोपनीय बनाती है। यानी कोई वकील अपने मुवक्किल की अनुमति के बिना उसकी बातों या दस्तावेजों का खुलासा नहीं कर सकता। हालांकि यह सुरक्षा तब खत्म हो जाती है जब बातचीत किसी अपराध या धोखाधड़ी के उद्देश्य से की गई हो। इस तरह यह कानून ईमानदार सलाह की रक्षा करता है लेकिन अवैध कामों को नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने जांच एजेंसियों के लिए साफ प्रोटोकॉल तय किया है। अगर किसी वकील को समन भेजा जाता है तो उसमें पूरे तथ्यों और कारणों का उल्लेख होना जरूरी होगा। एजेंसियां अब वकीलों को खुले नोटिस देकर मुवक्किल की जानकारी या दस्तावेज नहीं मांग सकतीं। साथ ही अगर किसी वकील का लैपटॉप, फोन या कोई डिजिटल डिवाइस मांगा जाता है तो पहले वह अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। अदालत वकील और मुवक्किल दोनों को नोटिस देगी और डेटा निकालने की प्रक्रिया उनकी मौजूदगी में और उनकी पसंद के तकनीकी विशेषज्ञ की निगरानी में होगी।
बेंच ने कहा कि यह व्यवस्था सिर्फ पेशेवर गोपनीयता की सुरक्षा के लिए है। अगर कोई वकील खुद किसी अपराध में शामिल पाया जाता है तो उसे इस सुरक्षा का लाभ नहीं मिलेगा। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी भी आपराधिक गतिविधि को इस कानून के पीछे छिपने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
यह फैसला तब आया जब कुछ समय पहले जांच एजेंसियों ने कुछ वरिष्ठ वकीलों को पूछताछ के लिए बुलाया था। इनमें जून 2025 में हुई वह घटना भी शामिल थी जब प्रवर्तन निदेशालय ने शेयर आवंटन मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दत्तार और प्रताप वेणुगोपाल को समन किया था। इस पर बार एसोसिएशन ने कड़ा विरोध जताया और कोर्ट से इस तरह की कार्रवाई रोकने की मांग की थी।
12 अगस्त को हुई सुनवाई में बार संघों ने कहा था कि किसी भी वकील को समन करने से पहले मजिस्ट्रेट की अनुमति लेना जरूरी होना चाहिए। लेकिन अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इसका विरोध किया और कहा कि वकीलों के लिए अलग प्रक्रिया बनाना संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता के सिद्धांत के खिलाफ होगा। कोर्ट ने हालांकि कहा कि कुछ संस्थागत सुरक्षा उपाय जरूरी हैं ताकि वकील बिना डर के मुवक्किल का बचाव कर सकें।
जुलाई में ईडी ने खुद अपने अधिकारियों को निर्देश दिया था कि वे धारा 132 का उल्लंघन न करें और वकीलों को बेवजह समन न भेजें। सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला अब इस दिशा को और मजबूत बनाता है। अब देशभर की सभी जांच एजेंसियों को — चाहे वे पुलिस हों या राज्य की किसी जांच इकाई — इन्हीं नियमों का पालन करना होगा।



